न जिस में हादसे ग़म के हों ज़िंदगी के लिए

न जिस में हादसे ग़म के हों ज़िंदगी के लिए
वो ज़िंदगी तो मुसीबत है आदमी के लिए

ओ बे-नियाज़ मिरे कुछ ख़बर भी है तुझ को
मिटा रहा हूँ मैं ख़ुद को तिरी ख़ुशी के लिए

हवस-परस्त नहीं बंदा-ए-ख़ुलूस हूँ मैं
जो मेरा अपना हो मैं भी हूँ बस उसी के लिए

ख़ुदा की देन है वो जिस को दौलत-ए-ग़म दे
कि फ़ैज़-ए-इश्क़ नहीं है ये हर किसी के लिए

बस इक निगाह-ए-तमन्ना-नवाज़ हो जाए
तरस गया हूँ मोहब्बत की ज़िंदगी के लिए

ज़हे नसीब कि आई तो उन के होंटों पर
तमाम उम्र मैं रोया था जिस हँसी के लिए

ये अपना अपना मुक़द्दर है अपना अपना नसीब
कि ग़म किसी के लिए है ख़ुशी किसी के लिए

कहाँ वो लज़्ज़त-ए-पैहम कि अब तो ज़ालिम ने
उठा रखी हैं जफ़ाएँ कभी कभी के लिए

रखा न वहशत-ए-दिल ने कहीं का ऐ 'साहिर'
न कोई मेरे लिए है न मैं किसी के लिए


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