न कुछ कहना न सुनना बरसर-ए-पैकार हो जाना क़यामत है निगाहों का तिरी तलवार हो जाना कलेजे कट गए सब देखने वालों के सीनों में किसे मा'लूम था अंगड़ाई का तलवार हो जाना तिरी तिरछी नज़र ने ये हुनर भी ख़ूब सीखा है खिंचे तो तीर हो जाना चले तलवार हो जाना फ़रेब-ए-हुस्न का अदना सा इक ये भी करिश्मा है नज़र-अंदाज़ हो कर तीर का तलवार हो जाना तिरी नीची नज़र भी क्या नज़र है इक क़यामत है कभी नावक कभी ख़ंजर कभी तलवार हो जाना निराला ही तरीक़ा है हमारे क़त्ल करने का कनखियों से किसी का देखना तलवार हो जाना किसी की बे-रुख़ी भी 'नाज़' हश्र-अंगेज़ होती है पलटते ही निगाह-ए-नाज़ का तलवार हो जाना