पता मिलता नहीं दिल का कहाँ जिंस-ए-गिराँ रख दी इसी से ज़िंदगानी थी ये शय हम ने कहाँ रख दी गुज़ारी ज़िंदगानी हम ने यूँ ख़ाना-बदोशी में जहाँ तिनके नज़र आए बिना-ए-आशियाँ रख दी मिटाने को अंधेरा क़ब्र का है दाग़-ए-दिल काफ़ी ये शम' क्यों सर-ए-मरक़द उड़ाने को धुआँ रख दी पराई आग में पड़ कर जो जी पर खेल जाते हैं ख़ुदा ने उन के हिस्से में हयात-ए-जावेदाँ रख दी किया बेताब ऐसा लज़्ज़त-ए-शौक़-ए-शहादत ने रग-ए-जाँ में भरे नश्तर कलेजे में सिनाँ रख दी भला देखें तो अब क्यूँकर न उन का दिल पसीजेगा दहन में नामा-बर के काट कर अपनी ज़बाँ रख दी सितम है ग़ैर तो हैं बा-वफ़ा मैं बेवफ़ा ठहरा मुझी पे तुम ने क्यों तोहमत नसीब-ए-दुश्मनाँ रख दी वहीं है चश्मा-ए-ज़मज़म जहाँ पर बैठ कर पी ली वहीं मय-ख़ाना है मुझ रिंद ने बोतल जहाँ रख दी सुख़न-वर वज्द करते हैं तिरे अश'आर सुन-सुन कर ग़ज़ल में बात ऐसी तू ने 'नाज़'-ए-नुक्ता-दाँ रख दी