न मैं ने मौत को समझा न ज़िंदगानी को किस आइने में उतारूँ तिरी जवानी को बड़ी शदीद तमन्ना है ज़िंदगानी की कभी क़रीब से देखा है ज़िंदगानी को बहुत दिनों से कोई हादिसा नहीं गुज़रा तरस रहा है क़लम देर से रवानी को जिगर के दाग़ किसी घाट पर नहीं धोए बहुत सँभाल के रक्खा तिरी निशानी को फ़लक के ज़ुल्म ज़माने के हादसे 'इशरत' निकल पड़े हैं मिरे घर की पासबानी को