शिकस्त-ए-रूह से पहले सहर नहीं होती तमाम उम्र शब-ए-ग़म बसर नहीं होती हुजूम-ए-यास के मारे हुए किधर जाएँ हर एक राह तिरी रहगुज़र नहीं होती ब-हर-मक़ाम वो रहते हैं बा-ख़बर हम से और इस तरह कि हमें भी ख़बर नहीं होती कभी असर ब-लिहाज़-ए-दुआ नहीं रहता कभी दुआ ही ब-क़द्र-ए-असर नहीं होती ये इंक़िलाब-ए-ज़माना कि दम-ब-दम पैदा ये ज़िंदगी कि इधर से उधर नहीं होती तुलू-ए-सुब्ह की उम्मीद ने हमें 'इशरत' वो रात दी जो किसी से बसर नहीं होती