न क़द्र-ए-शे'र न क़द्र-ए-हुनर है क्या कहिए ये शायरी है कि ख़ून-ए-जिगर है क्या कहिए हज़ार शोर-ए-मलामत हज़ार रुस्वाई मगर अज़ीज़ तिरी रहगुज़र है क्या कहिए उमीद-ए-वस्ल में कुछ और जी लिए होते ये ज़िंदगी भी मगर मुख़्तसर है क्या कहिए न कोई सुब्ह-ए-तमन्ना न सुब्ह-ए-वस्ल कोई सहर हनूज़ फ़रेब-ए-सहर है क्या कहिए बहुत हसीन फ़ज़ा-ए-हयात है लेकिन फ़ज़ा है और ग़म-ए-बाल-ओ-पर है क्या कहिए बदल रहा है दिलों को भी दौर-ए-सरमाया निगाह-ए-नाज़ भी ना-मो'तबर है क्या कहिए 'पयाम' जीते हैं हम बावजूद-ए-नाकामी हवस हयात की और किस क़दर है क्या कहिए