न क़फ़स में न आशियाने में चैन मिलता कहाँ ज़माने में जो भी तस्वीर है वो गर्द-आलूद जब भी देखा निगार-ख़ाने में सर उठाया तो झुक गया आलम मिट गया हूँ तो सर झुकाने में हो गए हम क़फ़स के बाशिंदे बस गए लोग आशियाने में छोड़ते वक़्त चंद पर अपने रख दिए हम ने आशियाने में बज़्म में हर निगाह बदली हुई ख़ैर अपनी है लौट जाने में शहर में जब कहीं भी आग लगी हाथ मेरे जले बुझाने में मेहरबाँ हैं वो मुझ पे फिर भी 'कमल' दिल लरज़ता है पास जाने में