शब-ए-फ़िराक़ में फिर याद आ रहा है कोई अँधेरी रात में दीपक जला रहा है कोई ख़ुदा ही जाने ख़ुशी भी मुझे मिलेगी कभी कि मेरे सोए हुए ग़म जगा हा है कोई हमारे कमरे में झाँका था आफ़्ताब ज़रा कि दफ़अ'तन अभी पर्दे गिरा रहा है कोई चराग़ घर के न रौशन करो ख़ुदा के लिए चराग़ जो भी हैं रौशन बुझा रहा है कोई ज़रा सी पी थी मय-ए-इश्क़ और इतना सुरूर क़दम क़दम पे 'कमल' लड़खड़ा रहा है कोई