न तन्हा मैं ही दम भरता हूँ तेरी आश्नाई का जहाँ में शोर है ऐ शोख़ तेरी दिल-रुबाई का जबीन-ए-मेहर-ओ-मह में क्या सबब इतनी सफ़ाई का उन्हें भी शग़्ल है क्या तेरे दर पर जब्हा-साई का लहू की नद्दियाँ अय्याम-ए-फ़ुर्क़त में बहाता हूँ ख़याल आता है जब मुझ को तिरे दस्त-ए-हिनाई का वफ़ा की हो किसी को तुझ से क्या उम्मीद ओ ज़ालिम कि इक आलम है कुश्ता तेरी तर्ज़-ए-बेवफ़ाई का यही रह रह के आता है हमारे दिल में ऐ 'आजिज़' हसीनों के दरों पर कीजिए पेशा गदाई का