नाज़ है मश्क-ए-जफ़ा पर उस सितम-ईजाद को कब करेगा शाद मेरी ख़ातिर-ए-नाशाद को किस तरह का सम्म-ए-क़ातिल है ये शर्बत इश्क़ का जान-ए-शीरीं ज़हर आख़िर हो गई फ़रहाद को रहम जब करता नहीं नालों से फिर क्या फ़ाएदा दर्द-मंदी बुलबुल-ए-नालाँ से क्या सय्याद को कैसे वो ख़ुश-फ़हम हैं पत्थर पड़े उस फ़हम पर जो जहानाबाद समझे इस ख़राब-आबाद को इक तअ'ल्लुक़ से हज़ारों रंज होते हैं नसीब फ़िक्र करते किस ने देखा है किसी आज़ाद को जानते हैं जुज़्व है ईमान का हुब्ब-ए-वतन बे-तरह भूले वतन हैं क्या हुआ उस्ताद को नाला-ओ-ज़ारी में ऐ 'आजिज़' तू क्यों मसरूफ़ है कौन सुनता है अरे नादाँ तिरी फ़रियाद को