न तो मय से न जाम से ख़ुम से बन गई बात इक तसादुम से तुम मुझे भी कभी सदा दोगे ये तवक़्क़ो न थी कभी तुम से कुछ न कुछ दाद मिल गई उस को पढ़ता है जो ग़ज़ल तरन्नुम से मरने वाला भी बच गया आख़िर आप के सिर्फ़ इक तबस्सुम से क्या तमन्ना करे वो साहिल की खेलता है जो ख़ुद तलातुम से इश्क़ के ज़ह्र का जो आदी हो ख़ौफ़ क्या उस को ज़हर-ए-कज़दुम से जिन को हासिल थीं दाइमी ख़ुशियाँ किस लिए आज हैं वो गुम-सुम से मौत से पहले मर चुके कितने ख़ौफ़ से या किसी तवहहुम से ग़र्क़ बेड़े हुए हैं बातिल के अज़्म-ए-‘ख़ाकी’ के जोश-ए-क़ुल्ज़ुम से