नदी थी कश्तियाँ थीं चाँदनी थी झरना था गुज़र गया जो ज़माना कहाँ गुज़रना था मुझी को रोना पड़ा रतजगे का जश्न जो था शब-ए-फ़िराक़ वो तारा नहीं उतरना था मिरे जलाल को करना था ख़म सर-ए-तस्लीम तिरे जमाल का शीराज़ा भी बिखरना था तिरे जुनून ने इक नाम दे दिया वर्ना मुझे तो यूँ भी ये सहरा उबूर करना था इक ऐसा ज़ख़्म कि जिस पर ख़िज़ाँ का साया न था इक ऐसा पल कि जो हर हाल में ठहरना था