न अंगिया न कुर्ती है जानी तुम्हारी नहीं पास कोई निशानी तुम्हारी हुई 'रिंद' तो ज़िंदगानी तुम्हारी यही है अगर ना-तवानी तुम्हारी ज़ियादा हुई याद जानी तुम्हारी ग़रज़ क़हर है मेहरबानी तुम्हारी न भूलूँगा हरगिज़ न भूला हूँ अब तक इनायत करम मेहरबानी तुम्हारी शबीह आप की खींच देगा ये माना अदा किस तरह खींचे मानी तुम्हारी तबाह-ओ-ख़राब इक जहाँ को किया है ख़ुदा का ग़ज़ब है जवानी तुम्हारी वही कह रहा हूँ जो फ़रमाते हो तुम मिरी गुफ़्तुगू है ज़बानी तुम्हारी बराबर समझते हो ग़ैरों के मुझ को रहे मेहरबाँ क़द्रदानी तुम्हारी दिल ओ दीदा लपका है फँसने का तुम को कहाँ तक करूँ पासबानी तुम्हारी बस अब शक्ल दिखलाओ बे-जा है ग़म्ज़ा बहुत सुन चुके लन-तरानी तुम्हारी अदम को चला ले के दाग़-ए-मोहब्बत दिखाऊँगा सब को निशानी तुम्हारी किया इम्तिहाँ मेरा सौ मारकों में वही है मगर बद-गुमानी तुम्हारी जगा कर दिल-ए-ज़ार ने हिज्र की शब सहर तक कही है कहानी तुम्हारी बुरा गर न मानो तो सच सच मैं कह दूँ तुम अच्छे बुरी बद-ज़बानी तुम्हारी करम कीजिए आइए हज़रत-ए-इश्क़ है ख़ून-ए-जिगर मेहमानी तुम्हारी अबस बे-सबब बे-जहत रूठते हो यही तो बरी ख़ू है जानी तुम्हारी भला तुम ही मुंसिफ़ हो लिल्लाह बोलो वो क्या बात थी जो न मानी तुम्हारी वो पीरी में भी 'रिंद' देखे अब आ कर जिसे याद होवे जवानी तुम्हारी