नफ़स-ए-आरज़ू है शो'ला-तराज़ सोज़-ए-एहसास तेरी उम्र दराज़ ख़ुश हैं खा कर फ़रेबॉ-ए-इश्वा-ए-नाज़ किस क़दर सादा-दिल हैं अहल-ए-नियाज़ बन गई गर्दिश-ए-जहाँ की हरीफ़ हुस्न की इक निगाह-ए-फ़ित्ना-तराज़ नाम सुनते ही आशियाने का लौट आई है ताक़त-ए-परवाज़ ख़लिश-ए-दिल बढ़ा गई कुछ और आप की चश्म-ए-इल्तिफ़ात-नवाज़ कहीं ये उन की रह-गुज़र तो नहीं झुक पड़ी है 'ग़नी' जबीन-ए-नियाज़ एक ही साज़ के हैं दो नग़्मे मेरी ख़ामोशी आप की आवाज़