नफ़स-ए-अर्ज़-ओ-समा हो जैसे मैं ने इक शेर कहा हो जैसे जैसे इक चाप कोई डूब गई कोई दरवाज़ा खुला हो जैसे जैसे उभरा हो कोई साया सा आख़िरी बल्ब बुझा हो जैसे जैसे रख दे कोई आँखों पे क़दम कोई आहट न सदा हो जैसे अब यहाँ कोई नहीं आएगा मैं हूँ और मेरा ख़ुदा हो जैसे मैं भी चुप हो गया पा कर तुझ को तू भी कुछ सोच रहा हो जैसे वक़्त-ए-गिर्या तिरी याद आई है साथ बारिश के हवा हो जैसे कैसा वीरान पड़ा है सहरा कोई मजनूँ न 'सना' हो जैसे