नग़्मा-ए-कुन से नुमूदार अजब होश हुआ दहर में जिस को सँभाला वही बेहोश हुआ ख़ल्वत-ए-नाज़ में यूँ कोई हम-आग़ोश हुआ इल्म दर सीना मिरे दिल से फ़रामोश हुआ जौर-ए-पैहम ने कभी दिल से निकलने न दिया दर्द बढ़ता ही रहा जब वो सितम-कोश हुआ इश्क़ में चाहिए हर-लहज़ा निराली गर्दिश क्यों वहाँ कातिब-ए-तक़दीर सुबुक-दोश हुआ याद आए उन्हें कुछ तर्क-ए-जफ़ा के पहलू हैफ़-सद-हैफ़ कि मैं दिल से फ़रामोश हुआ रंग या शक्ल न था क्या नज़र आता वो हमें दीदा-ए-दिल की जगह ज़ह्न में रू-पोश हुआ हर जगह तूर है बे-ख़ुद है जहाँ मिस्ल-ए-कलीम जल्वा-ए-नौ से वो हंगामा फ़रामोश हुआ हश्र के बाद रही हसरत-ए-नज़्ज़ारा मुझे इस तरह मजमा-ए-ख़ूबाँ में वो रू-पोश हुआ क्या हो पादाश-ए-अमल मस्त-ए-अज़ल है 'नाज़िश' या ख़ुदा तू ने पिलाई तो ये मय-नोश हुआ