क़िस्मत में हैं बर्बादियाँ याद-ए-वतन से क्या ग़रज़ मैं फूल हूँ टूटा हुआ मुझ को चमन से क्या ग़रज़ तू ने फिराया दर-ब-दर तक़दीर से क्या वास्ता तू ने मिलाया ख़ाक में चर्ख़-ए-कुहन से क्या ग़रज़ ग़ुंचे कहीं खिल कर हँसें हँस कर तपे की कुछ कहें मौज-ए-तबस्सुम को भला तेरे दहन से क्या ग़रज़ क्या क़त्ल से दिल शाद है कहना किसी का याद है मेरे शहीद-ए-नाज़ को क़ैद-ए-कफ़न से क्या ग़रज़ सद-चाक दामाँ हो तो हो टुकड़े गरेबाँ हो तो हो हम और ही आलम में हैं अब तन-बदन से क्या ग़रज़ 'नाज़िश' न छोड़ो शग़्ल-ए-मय तक़्वा का दावा है रिया तुम साफ़-बातिन रिंद हो इस मक्र-ओ-फ़न से क्या ग़रज़