नहीं आओ कि अब आवाज़-ए-पा से चोट लगती है मिरे एहसास पर तेरी सदा से चोट लगती है तुझे ख़ुद अपनी मजबूरी का अंदाज़ा नहीं शायद न कर अहद-ए-वफ़ा अहद-ए-वफ़ा से चोट लगती है ये सब बातें मुनासिब हैं मगर फिर भी मेरे हमदम तग़ाफ़ुल की तिरे हल्की अदा से चोट लगती है हवाओ तुम ज़रा ठहरो न ख़ुश्बू ऐसे बिखराओ हूँ नाज़ुक मैं मुझे बाद-ए-सबा से चोट लगती है ये ख़त अपने सँभालो तुम हसीं लम्हे भी ले जाओ हमें ऐसी मोहब्बत की अता से चोट लगती है तुम्हारे बा'द रंगीनी कोई भाती नहीं मुझ को हथेली को भी अब रंग-ए-हिना से चोट लगती है मिरी धड़कन में जिन बे-ताबियों ने डेरा डाला है उन्ही बे-ताबियों की इंतिहा से चोट लगती है बहुत हस्सास है 'ज़रयाब' को झुकना नहीं आता क़बा फूलों की भी हो तो क़बा से चोट लगती है