नहीं ऐसा कि कभी शौक़ पर-अफ़्शाँ भी नहीं दिल को था नाज़ कि वीराँ है सो वीराँ भी नहीं क्यों हैं तूफ़ान की ज़द में हरम-ओ-दैर-ओ-कुनिश्त इन मज़ारों पे तो मुद्दत से चराग़ाँ भी नहीं किस ने इस अंजुमन-ए-शौक़ को ताराज किया दिल गुज़रगाह-ए-ख़यालात-ए-परेशाँ भी नहीं शौक़-ए-अफ़्सुर्दा का मुझ से न गिला कर कि मुझे ए'तिबार-ए-करम-ए-जुम्बिश-ए-मिज़्गाँ भी नहीं जल्वा-आबाद-ए-तसव्वुर ब-अदाकारी-ए-शौक़ अब तो मरहून-ए-फ़ुसूँ-साज़ी-ए-जानाँ भी नहीं काएनात अपनी हमें दे के भी फ़ारिग़ नहीं आप हम तो कुछ मुद्दई-ए-वुसअ'त-ए-दामाँ भी नहीं कभी इस सम्त को भी बहर-ए-तमाशा निकलो दिल का हैरत-कदा ऐसा कोई वीराँ भी नहीं हैरत-आबाद तमाशा में न ज़ुल्मत है न नूर कोई पिन्हाँ भी नहीं है कोई उर्यां भी नहीं कब से मयख़ाने में 'रिज़वी' नहीं आया है नज़र इस ख़िज़ाँ-दोस्त को कुछ शर्म-ए-बहाराँ भी नहीं