नहीं मकाँ न सही सर पे आसमान तो है ज़मीं पे है दर-ओ-दीवार साएबान तो है हज़ार मुझ पे ग़मों के पहाड़ टूट पड़ें मुझे बचाने तिरी याद की चटान तो है नहीं ख़ुदाई में कोई भी मेहरबाँ न सही ख़ुदाई जिस की है वो मुझ पे मेहरबान तो है नहीं है मुझ को कोई दा'वा-ए-ज़बाँ-दानी यही बहुत है कि उर्दू मिरी ज़बान तो है मुझी पे आज सितम हैं बजा-ए-लुत्फ़-ओ-करम ख़ुशी है ये मुझे इक रब्त दरमियान तो है करें हज़ार बुराई वो ग़ैर की 'राही' मगर ज़माने को क्या कीजे बद-गुमान तो है