नहीं शुऊर-ए-नज़र किसी में हज़ारों ग़म हैं मिरी हँसी में नहीं है मेआ'र कोई बाक़ी न दुश्मनी में न दोस्ती में न छेड़ उन को ऐ जज़्बा-ए-दिल वो रो पड़ेंगे हँसी हँसी में पयम्बर-ए-तीरगी भी इक दिन ज़रूर आएँगे रौशनी में ज़रा कोई राहबर से कह दे कि राज़-ए-मंज़िल है गुमरही में मज़ाक़-ए-महफ़िल गिरा हुआ है न टूटे दिल कोई दिल-लगी में बुझी हुई शम्अ' साथ ले कर भटक रहे हैं वो तीरगी में ख़ुदा का इरफ़ाँ यही है 'अशरफ़' कि लुत्फ़ आ जाए बंदगी में