गरचे क़लम से कुछ न लिखेंगे मुँह से कुछ नहीं बोलेंगे फिर भी जुलूस-ए-दार चला तो साथ हम उस के हो लेंगे वक़्त आया तो ख़ून से अपने दाग़-ए-नदामत धो लेंगे साया-ए-ज़ुल्फ़ में जागने वाले साया-ए-दार में सो लेंगे कौन से साहिल पर ये सफ़ीने अपना लंगर खोलेंगे रुख़ पे हवा के हो लेंगे तो दरिया दरिया डोलेंगे जिन मल्लाहों को तूफ़ाँ से तुंद हवा ने पार किया क्या अब साहिल पर आ कर वो अपनी नाव डुबो लेंगे जब भी दश्त-ए-वफ़ा में रक़्स-ए-आबला-पा याँ होवेगा अहल-ए-वफ़ा उस से पहले ही राह में काँटे बो लेंगे लफ़्ज़ों से एहसास का रिश्ता जिस लम्हे तक क़ाएम है सच्चे समझो या झूटे कुछ मोती हम भी पिरो लेंगे नफ़सा-नफ़सी के आलम में कौन किसी का हाथ बटाए अपना अपना बोझ है 'इश्क़ी' फ़र्दन-फ़र्दन ढो लेंगे