नहीं था कोई भी फिर भी थीं आहटें क्या क्या तमाम-रात हुईं दिल पे दस्तकें क्या क्या न मिट सके किसी सूरत भी मेरे दिल के शोकूक तिरी निगाह ने की हैं वज़ाहतें क्या क्या ये आरज़ू है कि इन में हो कोई तुझ जैसा नज़र में घूमती रहती सूरतें क्या क्या किसी के तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल पे किस लिए इल्ज़ाम मुझे तो ख़ुद से रही हैं शिकायतें क्या क्या सिमट गए हैं मोहब्बत के दाएरों में हम बिखर गई हैं फ़ज़ाएँ हिकायतें क्या क्या ख़ुद अपनी ज़िंदगी भी अपनी दस्तरस में नहीं क़दम क़दम पे बदलती है करवटें क्या क्या किसी की चश्म-ए-तवज्जोह न उठ सकी मुझ पर मिरी नज़र में थीं वर्ना गुज़ारिशें क्या क्या ये रंग लाई है अहबाब की ख़िरद-मंदी उजड़ के रह गईं महफ़िल की रौनक़ें क्या क्या तमाम वलवले वो सर्द पड़ चुके ऐ 'अर्श' हमारे दिल में थीं वर्ना हरारतें क्या क्या