नई ज़मीन नया आसमाँ बनाते हैं हम अपने वास्ते अपना जहाँ बनाते हैं बुझी बुझी सी वो तस्वीर-ए-जाँ बनाते हैं कहीं चराग़ कहीं पर धुआँ बनाते हैं बयान करते हैं हम दास्तान लफ़्ज़ों में ज़रा सी बात की वो दास्ताँ बनाते हैं चमकती धूप में किरनें समेटते हैं हम उन्हीं को तान के फिर साएबाँ बनाते हैं सुकून-ए-दिल के लिए हम भी रोज़ काग़ज़ के कभी तो फूल कभी तितलियाँ बनाते हैं जो मद्द-ओ-जज़्र से वाक़िफ़ नहीं हैं दरिया के वो साहिलों पे ही अक्सर मकाँ बनाते हैं बनाते रहते हैं 'जावेद' कश्तियाँ लेकिन हम उन के वास्ते फिर बादबाँ बनाते हैं