नई ज़मीनों को अर्ज़-ए-गुमाँ बनाते हैं ख़ुदा के ब'अद कोई साएबाँ बनाते हैं वो एक लम्हा जिसे तुम ने मुख़्तसर जाना हम ऐसे लम्हे में इक दास्ताँ बनाते हैं पुराने रिश्ते फिर आने लगे हैं अपने क़रीब नए सिरे से चलो दूरियाँ बनाते हैं ख़िरद नहीं है यहाँ बस जुनून का सौदा हम इस जुनून से आगे मकाँ बनाते हैं वो इश्क़-ज़ादे जिन्हें सूफ़िया कहो हो तुम वो लब हिलाते हैं और दो-जहाँ बनाते हैं