नई पौद के सोच-महल में उट्ठीं नई नई दीवारें जैसे घर वाले वैसा घर जैसा घर वैसी दीवारें किस से गिला करें वो या मैं आख़िर रंज निजी होता है उस तक उस की राह की मिट्टी और मुझ तक मेरी दीवारें कई बात तो घर में लेटे लेटे दम घुटने लगता है आगे पीछे बढ़ती घटती रहती हैं घर की दीवारें हर दिन हम बंजारों ऐसा कोई सफ़र कर के देखे तो पाँव तले धँसती सी धरती काँधों पर पक्की दीवारें मुझ को हत्त्यारा मत कहना मेरा लहू है उन हाथों पर जिन हाथों पर रोक रहा हूँ चार-तरफ़ गिरती दीवारें लाख बदलना चाहो लेकिन माँ को माँ कहते बनती है मिट्टी वही वही है धरती बदल गईं पिछली दीवारें 'अश्क' कोई है मुझ में जो दिन चढ़ते चढ़ते ढह देता है रात गए तक चुनी हुई बे-हँगम मिट्टी की दीवारें