फूलों की है तख़्लीक़ कि शो'लों से बना है कंदन सा तिरा जिस्म जो ख़ुश्बू में बसा है जंगल के ग़ज़ालों पे अजब ख़ौफ़ है तारी तूफ़ान कोई शहर की जानिब से उठा है ये हुस्न-ए-चमन है मिरे एहसास की तख़्लीक़ वर्ना कहीं गुल है न कहीं मौज-ए-सबा है हर लफ़्ज़ तिरे चेहरे की तस्वीर बना था किस कर्ब से सौ बार तिरे ख़त को पढ़ा है डालो मिरे कानों में भी पिघला हुआ सीसा ऐ बरहमनो मैं ने भी तो वेद सुना है तुम ढूँडते फिरते हो जिसे सेहन-ए-चमन में वो शख़्स अभी कूचा-ए-क़ातिल को गया है