नई सुब्ह चाहते हैं नई शाम चाहते हैं जो ये रोज़ ओ शब बदल दे वो निज़ाम चाहते हैं वही शाह चाहते हैं जो ग़ुलाम चाहते हैं कोई चाहता ही कब है जो अवाम चाहते हैं इसी बात पर हैं बरहम ये सितमगरान-ए-आलम कि जो छिन गया है हम से वो मक़ाम चाहते हैं किसे हर्फ़-ए-हक़ सुनाऊँ कि यहाँ तो उस को सुनना न ख़वास चाहते हैं न अवाम चाहते हैं ये नहीं कि तू ने भेजा ही नहीं पयाम कोई मगर इक वही न आया जो पयाम चाहते हैं तिरी राह देखती हैं मिरी तिश्ना-काम आँखें तिरे जल्वे मेरे घर के दर-ओ-बाम चाहते हैं वो किताब-ए-ज़िंदगी ही न हुई मुरत्तब अब तक कि हम इंतिसाब जिस का तिरे नाम चाहते हैं न मुराद होगी पूरी कभी उन शिकारियों की मुझे देखना जो 'ज़ाहिद' तह-ए-दाम चाहते हैं