नाज़-पर्वर्दा-ए-जहाँ तुम हो दर्द-ओ-ग़म हो जहाँ जहाँ तुम हो ये ज़मीं भी अगर नहीं मेरी हाए क्यूँ ज़ेर-ए-आसमाँ तुम हो मैं ने की थी शिकायत-ए-दरूँ बे-सबब मुझ से बद-गुमाँ तुम हो मैं ज़माने से ख़ुद समझ लेता वक़्त के मेरे दरमियाँ तुम हो फूटती है वहीं से दर्द की लय पर्दा-ए-साज़ में जहाँ तुम हो तुम को पा कर भी सोचता हूँ यही क्या फ़क़त रंज-ए-राएगाँ तुम हो