नज़र जो आते हैं औरों को ख़स्ता-हाल बहुत वही तो शहर में हैं साहब-ए-कमाल बहुत वो जिन की फ़िक्र-ओ-नज़र के हैं दाएरे महदूद हर एक बात पे करते हैं वो सवाल बहुत ये तीरगी-ए-शब-ए-वस्ल मुझ से कहती है चराग़-ए-हिज्र के बुझने का है मलाल बहुत दर-ए-हयात खुलेगा कभी तो मेरे लिए इसी उमीद पे गुज़रे हैं माह-ओ-साल बहुत मिरे ज़वाल में पिन्हाँ उरूज है तेरा तुझे उरूज मुबारक मुझे ज़वाल बहुत बड़े-बड़ों की भी दस्तार गिरने वाली है हवा-ए-शहर-ए-हवस में है इश्तिआ'ल बहुत तमाम-शहर से 'नौशाद' दुश्मनी है जिसे वो शख़्स रखता है हर-पल मिरा ख़याल बहुत