कहाँ से बुनते नए रोज़ ताने-बाने हम नया नया ये ज़माना है और पुराने हम हमारी आँखों पे ग़लबा है नींद का अब भी लगे हुए हैं कई रोज़ से ठिकाने हम सभी खड़े थे वहाँ अपनी दास्तान लिए जहाँ जहाँ गए क़िस्सा कोई सुनाने हम चढ़ा हुआ है अभी हम पे हिजरतों का नशा पलट के आएँगे इक दिन किसी बहाने हम हवा के डर से जो अपने परों में सिमटे हैं उन्हीं परिंदों को आए हैं अब उड़ाने हम बहुत दिनों से तो अपने हिसार में गुम है तुझे भी आएँगे इस क़ैद से छुड़ाने हम समझ में कुछ नहीं आता कि क्या हुआ 'नौशाद' लगे हैं इन दिनों बातें बहुत बनाने हम