नज़र किसी को वो मू-ए-कमर नहीं आता ब-रंग-ए-तार-ए-नज़र है नज़र नहीं आता ज़माना-ए-ग़म-ए-फ़ुर्क़त बसर नहीं आता अजल भी आती नहीं यार अगर नहीं आता हमेशा हूँ भी मैं रोता ब-रंग-ए-शबनम-ओ-अब्र गली से कौन तिरे चश्म-तर नहीं आता ये है निगाह से दर-पर्दा तेग़-ज़न क़ातिल कि इल्तियाम ये ज़ख़्म-ए-जिगर नहीं आता ग़म-ए-फ़िराक़ में मर मर के रोज़ जीता हूँ वो कौन शब है जो मुँह तक जिगर नहीं आता फ़क़त न नाम से चलता है काम दुनिया में कि ज़ेर-ए-सिक्का कभी गुल का ज़र नहीं आता वो लड़ के मिलते नहीं मिल के हम पकड़ते नहीं वो सुल्ह करते नहीं हम को शर नहीं आता फ़िराक़-ए-ज़ुल्फ़ में रोज़ उठ के शब को रोता हूँ कि सर से गेसु-ए-शब ता-कमर नहीं आता वो शाह-ए-हुस्न ख़फ़ा होए 'अर्श' कहता है गिरा जो पाँव पर क्यूँ उस का सर नहीं आता