नज़र में अपनी कभी इस क़दर बुरा तो न था मैं अपने-आप से पहले गुरेज़-पा तो न था ये क्या किया उसे तक़दीर सौंप दी अपनी मिरी तरह वो इक इंसान था ख़ुदा तो न था गुज़र गया जो बराबर से मुँह छुपाए हुए ये सोचता हूँ कहीं कोई आश्ना तो न था किसे क़ुबूल था ज़िंदान-ए-आब-ओ-गिल लेकिन अब और उस के सिवा कोई रास्ता तो न था जमी थीं मुझ पे निगाहें जो इक ज़माने की मुझे वो मुड़ के सर-ए-राह देखता तो न था तमाम-उम्र रही जिस की जुस्तुजू 'ख़ावर' कहीं वो शख़्स मुझी में छुपा हुआ तो न था