नज़र से क़ैद-ए-तअय्युन उठाई जाती है तजल्ली-ए-रुख़-ए-जानाँ दिखाई जाती है जब उन को हौसला-ए-दिल पे ए'तिबार नहीं तो फिर नज़र से नज़र क्यूँ मिलाई जाती है ख़ुम-ओ-सुबू की ज़रूरत के हम नहीं क़ाइल शराब मस्त नज़र से पिलाई जाती है सितम-नवाज़ी-ए-पैहम है इश्क़ की फ़ितरत फ़ुज़ूल हुस्न पे तोहमत लगाई जाती है भुला दिया है ग़म-ए-रोज़गार ने जिस को वो दास्ताँ मुझे फिर याद आई जाती है 'शकील' दूरी-ए-मंज़िल से ना-उमीद न हो अब आई जाती है मंज़िल अब आई जाती है