शगुफ़्त-ए-आब से मिट्टी को आइना करते

शगुफ़्त-ए-आब से मिट्टी को आइना करते
चराग़ सर्द न होते तो ज़मज़मा करते

बहुत से रंग भी रखते हैं ताक़त-ए-परवाज़
हवा में सिर्फ़ परिंदे नहीं उड़ा करते

असर न लीजिए इस गर्म-ओ-सर्द का दिल पर
कि शोर-ओ-शर से परेशाँ नहीं हुआ करते

बंधे हुए थे मिरे हाथ भी तुम्हारी तरह
वफ़ा सरिश्त में होती तो हम वफ़ा करते

ज़मीन ओढ़ के सोए हैं साहिबान-ए-इश्क़
अब उस गली के दरीचे नहीं खुला करते

अजीब प्यास थी उस दिल-रुबा की आँखों में
हम उन को चूम न लेते तो और क्या करते

बहुत कुशादा थी ये अर्ज़-ए-पाक उन पर भी
अगर वो घर से निकलने का हौसला करते

जगह न देते किसी ख़ौफ़ को कभी दिल में
किसी से इश्क़ जो करते तो बरमला करते

अगर ख़राब हुए मेहर-ओ-माह के हाथों
किसी चराग़ के हक़ में तो कुछ दुआ करते

ख़याल उन को न होता अगर मोहब्बत का
कभी वो नींद में चलते न रत-जगा करते

बदल दिया है ज़माने ने उस को भी 'साजिद'
फिर एक बार कभी उस से राब्ता करते


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