नज़र उठा के जो देखा उधर कोई भी न था सुलगती धूप की सरहद पे घर कोई भी न था हर एक जिस्म था इक पोस्टर शुआ'ओं का सुलगते दश्त में ठंडा शजर कोई भी न था चमकते दिन में तो सब लोग साथ थे लेकिन उदास शब में मिरा हम-सफ़र कोई भी न था हर एक शहर में था इज़्तिराब का आसेब जहाँ सुकून हो ऐसा नगर कोई भी न था सभी को फ़न्न-ए-जराहत से वाक़फ़िय्यत थी हमारी तरह वहाँ बे-हुनर कोई भी न था सब अपने कमरों में मस्ती की नींद सोए थे सियाह शब में सर रहगुज़र कोई भी न था जो तल्ख़ शाम के सायों को क़त्ल कर देता तमाम-शहर में इतना निडर कोई भी न था मिरे ज़वाल की सब को थी आरज़ू 'असअद' मिरे कमाल से ख़ुश-दिल मगर कोई भी न था