नज़्र-ए-तौबा हम करेंगे मय-परस्ती एक दिन ढूँढती रह जाएगी ये बज़्म-ए-मस्ती एक दिन ग़म न कर ख़ुशियाँ न आएँगी तो ग़म आ जाएँगे बस ही जाएगी किसी से दिल की बस्ती एक दिन यूँ गुज़ारी हम ने तो अपनी दो-रोज़ा ज़िंदगी मय-परस्ती एक दिन की फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन हुस्न की ये गर्म-बाज़ारी रहेगी ता-ब-कै देखना हो जाएँगी ये जिंस सस्ती एक दिन अपनी नादानी ये नाज़ाँ हैं बहुत अहल-ए-ख़िरद उन को ले डूबेगी उन की ख़ुद-परस्ती एक दिन है जभी से बे-ख़ुदी बदमस्त हूँ सरशार हूँ उन के हाथों से पिया था जाम-ए-मस्ती एक दिन ठोकरें खाता रहेगा तोड़ कर बैठेगा पाँव ख़त्म हो जाएगी तेरी सैर-ए-हस्ती एक दिन बच के जाएँगी कहाँ हस्ती शिकस्त-ओ-रेख़्त से सर-बुलंदी के मुक़द्दर में है पस्ती एक दिन देख ज़ालिम की हुआ करती नहीं रस्सी दराज़ आसमाँ रह जाएगी ये चीरा-दस्ती एक दिन मिटते मिटते साफ़ मिट जाएँगे ये नक़्श-ओ-निगार ख़ुद अयाँ हो कर रहेगा राज़-ए-हस्ती एक दिन टूटने वाला है नाता उस से टूटेगा ज़रूर छूटने वाली है 'ख़ुशतर' बज़्म-ए-हस्ती एक दिन