तिरी वफ़ा में मिरे इंतिज़ार में क्या था ख़िज़ाँ के दर्द में ज़ख़्म-ए-बहार में क्या था ये सोचना था न हो जाएँ इस क़दर मजबूर ये देखना था तिरे इख़्तियार में क्या था लबों ने फूल तराशे नज़र ने बरसाए मगर वो काविश-ए-मिज़्गान-ए-यार में क्या था उधर ख़याल था रुख़्सार-ओ-चश्म-ओ-लब का इधर ख़बर नहीं दिल-ए-उम्मीद-वार में क्या था नज़र के काँटे पे तुल कर सुबुक हुए न गराँ तवाज़ुन-ए-निगह-ए-नौ-बहार में क्या था निगह में रम्ज़-ए-ग़ज़ल लब पे मक़्ता-ए-तमकीं बयाँ तो कीजिए उस इख़्तिसार में क्या था लबों को तुम ने तो 'मसऊद' सी लिया था मगर तबस्सुम-ए-निगह-ए-राज़-दार में क्या था