नज़रों के गिर्द यूँ तो कोई दायरा न था अपने सिवाए कुछ भी मगर सूझता न था सब खिड़कियाँ थीं बंद कोई दर खुला न था जाते कहाँ कि ख़ुद से परे रास्ता न था क्या जाने किस ख़याल से चुप हो के रह गया ऐसा नहीं कि ग़म मुझे पहचानता न था होंटों के पास आ न सका जाम उम्र-भर हालाँकि फ़ासला ये कोई फ़ासला न था वो जिस ने ज़िंदगी का मिरी रुख़ बदल दिया वो आप थे हुज़ूर कोई दूसरा न था पूछी किसी ने राह तो चुप हो के रह गए कहते भी क्या कि ख़ुद हमें अपना पता न था अब के कुछ इस तरह से भी आई 'कँवल' बहार सारे चमन में एक भी पत्ता हरा न था