यूँही जलाए चलो दोस्तो भरम के चराग़ कि रह न जाएँ कहीं बुझ के ये अलम के चराग़ हर एक सम्त अंधेरा है हू का आलम है जलाओ ख़ूब जलाओ नदीम जम के चराग़ जहाँ में ढूँडते फिरते हैं अब ख़ुशी की किरन कहा था किस ने जलाओ हुज़ूर ग़म के चराग़ वफ़ा का एक ही झोंका न सह सके ज़ालिम तिरी तरह ही ये निकले तेरी क़सम के चराग़ बुझा दिए हैं वहीं गर्दिश-ए-ज़माना ने जलाए जिस ने जहाँ भी कहीं सितम के चराग़ उन्हीं से मिलती रही मंज़िलों की लौ मुझ को बहुत ही काम के निकले रह-ए-अदम के चराग़ 'कँवल' उन्हीं से मिले रौशनी कहीं शायद जला रहा हूँ यही सोच कर क़लम के चराग़