नाकाम मेरी कोशिश-ए-ज़ब्त-ए-अलम नहीं यूँ मुतमइन हूँ जैसे मुझे कोई ग़म नहीं तारीकियों में आज भी गुम है वो रहगुज़र जिस को नसीब आप के नक़्श-ए-क़दम नहीं इस दौर में कि जिस में है जिंस-ए-वफ़ा का क़हत हम से वफ़ा-शिआ'र जो बाक़ी हैं कम नहीं तेरे सिवा किसी से उजालों की भीक ले कम-ज़र्फ़ इस क़दर तो मिरी शाम-ए-ग़म नहीं बिखरे हुए से 'राही' ये औराक़-ए-ज़िंदगी अपनी हयात ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ से कम नहीं