नक़्श दौर-ए-माज़ी के ज़ेहन में उभरते हैं भूली-बिसरी राहों से जब कभी गुज़रते हैं अंग अंग हँसता है ज़ाविए निखरते हैं जब वो मुस्कुराते हैं जब वो बात करते हैं हम उन्हीं पे जान-ओ-दिल भी निसार करते हैं अपना हाल-ए-दिल जिन से अर्ज़ करते डरते हैं इस क़दर न होता ज़ाँ आरज़ी बुलंदी पर उड़ने वाले ताइर के बाल-ओ-पर कतरते हैं नश्शा-ए-जवानी में उड़ते हैं हवाओं पर आसमान से नीचे कब वो पाँव धरते हैं मेहर-ओ-मह की गर्दिश में ढूँढते हैं क़िस्मत को अपनी अपनी करती पर कम निगाह करते हैं जौर-ओ-जब्र का उन का सिलसिला नहीं टूटा गो वफ़ाओं के हम ने सब उसूल बरते हैं कुछ सुकून देती हैं बदलियाँ उमीदों की यास-ओ-हुज़्न के तूफ़ाँ सर से जब गुज़रते हैं 'मौज' बहर-ए-उल्फ़त में लाज़मी हैं ग़व्वासी ग़र्क़ होने वाले ही पार भी उतरते हैं