नक़्श पानी पे बना हो जैसे ज़िंदगी मौज-ए-बला हो जैसे मुझ से बच बच के चली है दुनिया मेरे नज़दीक ख़ुदा हो जैसे कोई तहरीर मुकम्मल न हुई मुझ से हर लफ़्ज़ ख़फ़ा हो जैसे किस क़दर शहर में सन्नाटा है अब के कोई न बचा हो जैसे इस तरह पूज रही है दुनिया कोई मुझ से भी बड़ा हो जैसे राह मिलती है अंधेरों में मुझे कोई मसरूफ़-ए-दुआ हो जैसे मुझ को अक्सर ये हुआ है महसूस कोई कुछ पूछ रहा हो जैसे घर से इस तरह निकल आए 'अमीर' कोई दुश्मन न रहा हो जैसे