ना-ख़ुश दिखा के जिस को नाज़-ओ-इताब कीजे ऐ मेहरबाँ फिर उस को ख़ुश भी शिताब कीजे जो अपने मुब्तला हों और दिल से चाहते हों लाज़िम नहीं फिर उन से रुकिए हिजाब कीजे बैठे जो शाम तक हम बोला वो मेहरबाँ हो जो ख़्वाहिशें हैं उन का कुछ इंतिख़ाब कीजे हम ने 'नज़ीर' हँस कर उस शोख़ से कहा यूँ हैं ख़्वाहिशें तो इतनी क्या क्या हिसाब कीजे मौक़े की अब तो ये है जो वक़्त-ए-शब है ऐ जाँ हम बैठे पाँव दाबें और आप ख़्वाब कीजे