नाला-कुन हिज्र की शब को दिल-ए-ना-साज़ नहीं

नाला-कुन हिज्र की शब को दिल-ए-ना-साज़ नहीं
क्यों बुलंद अब मिरे बीमार की आवाज़ नहीं

गर मिज़ाज आज किसी शोख़ का ना-साज़ नहीं
किसी लिए बज़्म में फिर चंग की आवाज़ नहीं

तड़प उतनी नहीं तेज़ी नहीं आवाज़ नहीं
बर्क़ में भी दिल-ए-बेताब का अंदाज़ नहीं

चुपके चुपके किया दिल नावक-ए-मिज़्गाँ से हदफ़
है तअज्जुब कि पर-ए-तीर की आवाज़ नहीं

दिल तड़पता है मिरा ताइर-ए-बिस्मिल की तरह
रूह क़ालिब में नहीं ताक़त-ए-परवाज़ नहीं

वाइ'ज़ों का ये नहीं क़ौल-ए-दरोग़ ऐ रिंदो
हश्र नज़दीक है ये दूर की आवाज़ नहीं

अरिनी मैं जो कहूँ जल्वा नज़र आए कलीम
लन-तरानी की मिरे वास्ते आवाज़ नहीं

ताएर-ए-क़िबला-नुमा कहता है मुज़्तर हो कर
मुर्ग़-ए-बिस्मिल की तरह ताक़त-ए-परवाज़ नहीं

गर्द-बाद उठ के मिरी ख़ाक का ये कहता है
ख़ाकसारों में कोई मुझ सा सर-अफ़राज़ नहीं

दार पर चढ़ के ये मंसूर सदा देता है
आज मुझ सा कोई आलम में सर-अफ़राज़ नहीं

इस मिरे दिल का उड़ा दे जो निशाना कोई
दह्र में क्या कोई ऐसा क़दर-अंदाज़ नहीं

गुल-ओ-बुलबुल को जुदा बाग़ से कर देता है
तुझ सा सय्याद कोई तफ़रक़ा-अंदाज़ नहीं

फूँक देतीं तो ये सय्याद का घर नालों से
अंदलीबों की मगर शो'ला-ए-आवाज़ नहीं

सैकड़ों आशिक़-ओ-माशूक़ छुड़ाए तू ने
ऐ अजल तुझ सा कोई तफ़रक़ा-अंदाज़ नहीं

बादा-ख़्वारों पे घटा ग़म की न क्यूँकर छाए
दिल खुले क्या दर-ए-मय-ख़ाना अगर बाज़ नहीं

बंद हो हो गईं यूँ बुलबुल-ए-दिल से मेरी
अंदलीबान-ए-चमन ज़मज़मा-पर्दाज़ नहीं

जिस तरह जान बचाई मय-ए-वसलत ने मिरी
पुर-असर ऐसा कोई शर्बत-ए-ए'जाज़ नहीं

क़ब्र में क्यों न अकेले मिरा जी घबराए
कोई मूनिस नहीं यावर नहीं दम-साज़ नहीं

पार नावक न हुआ तोड़ के दिल को मेरे
ज़ोर बाज़ू में तिरे ओ क़दर-अंदाज़ नहीं

काटता क्यों है तू क़ैंची से इसे ऐ सय्याद
पर जो दो-चार हैं ये काबिल-ए-परवाज़ नहीं

क़ब्र पर आ के भी दिल पीसने आए हो मिरा
पाँव रखने का लहद पर तो ये अंदाज़ नहीं

सूरत-ए-अश्क मगर अहल-ए-अदम जाते हैं
है रवाँ क़ाफ़िला पर ज़ंग की आवाज़ नहीं

बाग़ वीरान किया बाद-ए-ख़िज़ाँ ने ऐसा
हम-सफ़ीरान-ए-चमन की कहीं आवाज़ नहीं

हो गई बंद ज़बाँ जल्द ख़बर ले ईसा
हिचकियों की तिरे बीमार में आवाज़ नहीं

सर्द आहों से हो क्या सिर्र-ए-मोहब्बत ज़ाहिर
बू-ए-ग़ुंचा की तरह दिल में मिरे राज़ नहीं

इस तरह कुफ़्र की आलम में हुई है कसरत
मस्जिदों तक में अज़ानों की भी आवाज़ नहीं

आज क्या मर गए ज़िंदाँ में तुम्हारे क़ैदी
ख़ैर हो क्यों ग़ुल-ओ-ज़ंजीर की आवाज़ नहीं

दौर है मेहदी-ए-दीं का जो जहान में 'फ़ाख़िर'
बुत-कदों में कहीं नाक़ूस की आवाज़ नहीं


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