उस को सितमगरी में किसी दिल से क्या ग़रज़ क़ातिल को बे-क़रारी-ए-बिस्मिल से क्या ग़रज़ जिस में न तेरी याद हो उस दिल से क्या ग़रज़ लैला न हो तो क़ैस को महमिल से क्या ग़रज़ मश्क़-ए-सितमगरी न करे वो मुहाल है उस को हमारे इस दिल-ए-बिस्मिल से क्या ग़रज़ मजनूँ के देखने का नहीं इश्तियाक़ कुछ लैला को चाक-ए-पर्दा-ए-महमिल से क्या ग़रज़ तिश्ना हूँ बहर-ए-उल्फ़त-ए-अबरू-ए-यार का दरिया-ए-आब-ए-ख़ंजर-ए-क़ातिल से क्या ग़रज़ काटूँगा आफ़्ताब की सूरत से ता-ब-शाम मुझ गर्म-रौ को दूरी-ए-मंज़िल से क्या ग़रज़ परवाना शम्अ' के लिए आता है बज़्म में दिल को हमारे मर्दुम-ए-महफ़िल से क्या ग़रज़ कहता है आसमान से दाग़-ए-जिगर मिरा ख़ुद मेहर हूँ मुझे मह-ए-कामिल से क्या ग़रज़ सौदा किसी की ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल का है मुझे हद्दाद मुझ को तौक़-ओ-सलासिल से क्या ग़रज़ आया है दाम ले के असीरी के वास्ते सय्याद को है शोर-ए-अनादिल से क्या ग़रज़ फ़र्त-ए-बुका से आँख में आँसू थमेंगे क्या दरिया-ए-बे-कनार को साहिल से क्या ग़रज़ जोश-ए-जुनूँ में ख़ुद को जो लैला क़रार दे फिर क़ैस को हो साहिब-ए-महमिल से क्या ग़रज़ देता हूँ मैं उसे तो वो कहते हैं तअन से औरों का हो गया मुझे इस दिल से क्या ग़रज़ दरिया-ए-फ़ैज़-ओ-जूद-ओ-सख़ा जिस का बंद हो फिर उस दनी को कश्ती-ए-साइल से क्या ग़रज़ शाकी न हूँ ख़ुदा से मैं जब अपने ख़ून का महशर में फिर हो दामन-ए-क़ातिल से क्या ग़रज़ दिल जब बुतान-ए-दहर के ख़ाली हों दर्द से संगीं दिलों को फिर हो मिरे दिल से क्या ग़रज़ तीर-ए-नज़र से कोई निशाना हो उन को क्या हो बे-क़रार ताइर-ए-बिस्मिल से क्या ग़रज़ जब आप ही न हो तो इलाक़ा किसी से क्या सर कट गया तो ख़ंजर-ए-क़ातिल से क्या ग़रज़ आएँ हैं देखने को तमाशा वो रक़्स का मर जाए या जिए उन्हें बिस्मिल से क्या ग़रज़ मिलते नहीं अगर तो मिरे दिल को फेर दो मुझ से ग़रज़ नहीं तो मिरे दिल से क्या ग़रज़ 'फ़ाख़िर' करूँ सवाल मैं क्या सूरत-ए-फ़क़ीर दर तक न आए जो उसे साइल से क्या ग़रज़