नाला रुकता है तो सर-गर्म-ए-जफ़ा होता है दर्द थमता है तो बे-दर्द ख़फ़ा होता है फिर नज़र झेंपती है आँख झुकी जाती है देखिए देखिए फिर तीर ख़ता होता है इश्क़ में हसरत-ए-दिल का तो निकलना कैसा दम निकलने में भी कम-बख़्त मज़ा होता है हाल-ए-दिल उन से न कहता था हमीं चूक गए अब कोई बात बनाएँ भी तो क्या होता है आह में कुछ भी असर हो तो शरर-बार कहूँ वर्ना शो'ला भी हक़ीक़त में हवा होता है हिज्र में नाला-ओ-फ़रियाद से बाज़ आ 'रुसवा' ऐसी बातों से वो बेदर्द ख़फ़ा होता है