ना-मुनासिब है ख़फ़ा नालों को सुन कर होना अभी आया ही नहीं तुम को सितमगर होना है सितम का ये करम आह नहीं करते हम वर्ना आसान न था सब्र का ख़ूगर होना नहीं रहती कोई रोक अहल-ए-जुनूँ के आगे कोई दीवार हो शक़ हो के उसे दर होना रो पड़ा मैं भी पसीजा जो वो बुत नालों पर क़ाबिल-ए-रहम है इंसान का पत्थर होना आ के समझाए वो तस्कीन का पहलू हम को मान लेंगे दिल-ए-बेताब का पत्थर होना गोर में दफ़्न किया जब न रुके ज़िंदाँ में किस तरह देखते दीवानों का बे-घर होना क़िस्सा-ए-तूर-ओ-कलीम आप सुनाते हैं फ़ुज़ूल नहीं मुमकिन जो तजल्ली का मुकर्रर होना छोड़ कर दाइरा-ए-हक़ को न जाए 'राग़िब' कुफ़्र है सिलसिला-ए-शैख़ से बाहर होना