ना-रसाई मक़ाम होती है नीम-ए-शब-जाँ तमाम होती है शम्स का हम कहा नहीं सुनते छाँव में रिंद शाम होती है ऐसा उस ने किया मुझे कामिल बज़्म-ए-गुलज़ार आम होती है जब गली में तिरी ख़िलाफ़त है राह अर्ज़-ए-क़याम होती है दार 'ख़ुद्दार' चल पड़ा ख़ुद ही अब क़ज़ा उस के नाम होती है