नसब ये है कि वो दुश्मन को कम-नसब न कहे अजब ये है कि ये दुनिया उसे अजब न कहे मिरी निगाह जुनूँ में ये बात भूल गई कि कब कहे मिरे जज़्बात और कब न कहे वो बरहमी की जो इक दास्ताँ थी ख़त्म हुई उसे कहो कि वो उस से वो बात अब न कहे वो बे-ज़बान नहीं है तो कम-नज़र होगा जो चश्म ओ लब तिरे देखे मगर ग़ज़ब न कहे उसे भी है मिरे जीने की आरज़ू 'शहपर' सुकून है कि ये अशआर बे-सबब न कहे